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बिहार चुनावः एनडीए की जीत और नीतीश कुमार का राजनीतिक सफरनामा



10 नवंबर 2020 की सुबह से ही देश की निगाहें टीवी स्क्रीन पर लग चुकीं थीं. इसी दिन बिहार विधानसभा 2020 चुनाव के परिणाम आने वाले थे. सुबह से रुझान भी आना शुरू हो गये थे. लेकिन पूरा रिजल्ट आते-आते आधी रात हो ही गई थी. रात के 12 बजे चुनाव आयोग ने भी जनादेश जारी कर ही दिया. जनादेश वही था. कुछ नहीं बदला. सरकार भी वही है और विपक्ष भी.

जनादेश से ये बात तय हो गई है कि नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले हैं. 243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में एक बार फिर से नीतीश कुमार के नेत्रत्व में एनडीए की सरकार बनने वाली है.

इस लेख के मुख्य बिंदु-

कुछ इस तरह रहा है 2020 विधानसभा चुनाव का रिजल्ट

 बिहार में कुल विधानसभा सीटों की संख्या 243 है. इसी के साथ 122 वो जादुई आंकड़ा है जिसको हासिल करने के साथ ही आपके हाँथ में सियासत की कुर्सी लग जाती है.

लेफ्ट पार्टियों का उदय फिर देखने को मिला है

अगर आप पूरे बिहार विधनासभा चुनाव के नतीजों पर गौर करेंगे तो आपको देखने को मिलेगा कि सीपीआई (एमएल) का फिर से उदय हुआ है. कुल मिलाकर लेफ्ट पार्टियों का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है.

बेरोजगारी, गरीबी, प्रवासी मजदूर तमाम ऐसे मुद्दे थे. जिन्होंने इस चुनाव में भी अपनी जगह तो ज़रूर बनाई. लेकिन सत्ता में बदलाव ना ला सके. महामारी के दौर में चुनाव की मशक्कत को देखता रहा बिहार. इसके साथ ही बिहार ने सुशासन बाबू का पिछले 15 साल का कार्यकाल भी देखा है.

नीतीश कुमार 15 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद अपनी अगली पारी के लिए फिर से तैयार हैं?

नीतीश कुमार के राजनीतिक सफर को पढ़ने से पहले तारीख याद करिए 5 नवंबर की, उस दिन पूर्णिया में एक चुनावी रैली थी. उसी रैली में नीतीश कुमार ने कहा था कि “आज चुनाव प्रचार का आख़िरी दिन है, परसों चुनाव है और ये मेरा आखिरी चुनाव है, अंत भला तो सब भला…”

नीतीश कुमार के इस बयान के बाद से ही कई राजनीतिक पंडितों ने कह दिया था कि बाबू को अपना राजनीतिक अंत दिखने लगा है. लेकिन कई लोगों ने ये भी कहा था कि ये नीतीश का इमोशनल कार्ड है. नीतीश इतने माहिर खिलाड़ी हैं कि उन्हें पता है कि कहां, क्या और कितना बोलना है.

कैसा रहा इंजीनियर बाबू से सुशासन बाबू तक का सफर?

ये रहे हैं नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु-

नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर-

क्या लिखा है किताब नीतीश कुमारः द राइज़ ऑफ़ बिहारमें?

नीतीश कुमार के इंजीनियरिंग के दिनों के दोस्त अरुण सिन्हा ने अपनी किताब ‘नीतीश कुमारः द राइज़ ऑफ़ बिहार’ में लिखा है कि “नीतीश कुमार राज कपूर की फिल्मों के काफी ज्यादा प्रसंशक हुआ करते थे. उनकी दीवानगी इस कदर थी कि वो उनकी हर फिल्म देखा करते थे.”

साल 1995 में ही दिख गई थी नीतीश कुमार की दूरदर्शिता-

बात साल 1995 की है. तब समता पार्टी को महज 7 सीटें ही मिली थीं. तब नीतीश कुमार को ये समझ में आ गया था कि राज्य में तीन पार्टियाँ अलग-अलग लड़ाई नहीं लड़ सकती हैं. तब साल 1996 में नीतीश ने पहली बार एनडीए से गठबंधन किया था.

उस वक्त बीजेपी का नेत्रत्व लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों में था. इस गठबंधन का फायदा नीतीश कुमार को हुआ था. इसी वजह से वो पहली बार साल 2000 में मुख्यमंत्री के पद पर पदस्त हुए थे. हालाँकि, ये पद उन्हें मात्र 7 दिनों के लिए ही मिला था लेकिन उन्होंने जनता के सामने खुद को लालू प्रसाद यादव का ठोस विकल्प साबित कर दिया था.    

नीतीश कुमार से हट-कर एक बार फिर से हम बिहार विधानसभा चुनाव की बात करते हैं. जैसा कि नतीजों से साफ़ है कि महागठबंधन 110 सीटें ही अपने नाम कर पाया है. महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव थे.  

  तमाम राजनीतिक गलियारे में इस बात की चर्चा हो रही है कि जीत से चूकने के पीछे की वजह क्या रही है?

सरांश

बिहार का फैसला आ चुका है. नीतीश कुमार जल्द ही आपको सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हुए नज़र आयेंगे. जल्द ही तारीख का ऐलान भी हो जायेगा. इन सबके साथ इस फैसले में ये भी दिख गया है कि बीजेपी की लोकप्रियता कितनी ज्यादा हो चली है? इतनी लोकप्रियता लोकतंत्र के लिए सही है या नहीं है. ये सवाल अलग है. लेकिन नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें बीजेपी मुख्यमंत्री के पद तक लेकर जा रही है.