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वह युद्ध जिसके योद्धाओं के सम्मान के लिए ब्रिटिश सरकार ने भी सिर झुकाया था



भारत की आज़ादी की लड़ाई में 1857 में उठी क्रान्ति की ज्वाला का बहुत महत्व माना जाता है। यह क्रांति इतनी सबल थी कि अगर सफल हो गई होती तो भारत को आज़ादी 90 साल पहले ही मिल गई होती। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि 1857 में एक और ऐसा युद्ध लड़ा गया था जो था तो अँग्रेजी शासन कि ओर से, लेकिन इस युद्ध को लड़कर जीतने वाले हिन्दुस्तानी सिपाही थे। इन सिपाहियों द्वारा दिखाई गई वीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने उस समय के सबसे बड़े पुरुसकार ‘इंडियन आर्डर औफ़ मेरिट’ से उन्हें नवाजा था। यह युद्ध इतिहास की किताबों में सारागढ़ी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।

सारागढ़ी कहाँ है:

अविभाजित भारत वह हिस्सा जो अफगानिस्तान से लगता हुआ है उसका एक छोटा सा इलाका था कोहाट। इस कोहाट गाँव की देखरेख करने के लिए 21 अप्रैल 1894 को ब्रिटिश रेजीमेंट की 36वीं सिक्ख रेजीमेंट की टुकड़ी को कर्नल कुक की देख रेख में भेजा गया था। अगस्त 1897 में ले. कर्नल जॉन हेटन के नेतृत्व में इस टुकड़ी को समाना हिल्स, कुराग, संगर, सहटॉप धर और सारागढ़ी की देखरेख के लिए भेज दिया गया । ये वो इलाके थे जहां पर वहाँ के मूल निवासी पशतुन ब्रिटिश सेना को तंग करते रहते थे। इस समस्या के लिए ब्रिटिश सेना ने उस इलाके में महाराजा रंजीत सिंह के बनाए हुए किलों को अपनी छावनी के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया था । लेकिन यह किले एक दूसरे से बहुत दूरी पर बने होने के कारण इनमें हर दो किलों के बीच में एक चौकी बनाई गई थी जो इनके बीच संवाद बनाए रखने का काम करती थी। ऐसी ही एक चौकी सारागढ़ी में बनाई गई जिसका काम फोर्ट लोकहार्ट और फोर्ट गुलिस्ताँ के बीच में समन्वय स्थापित करना था। इस चौकी में एक सिग्नल टावर भी बनाया गया था जहां से ब्रिटिश सेना को संदेश भेजने का काम किया जाता था ।

12 सितंबर 1897 :

यह वह दिन था जब पश्तूनों की एक टुकड़ी को यह छोटी सी चौकी पर कब्जा करना आसान लगा क्योंकि इस चौकी की देखभाल के लिए 36वीं सिक्ख बटालियन के 21 सिपाही तैनात थे। जैसे ही किले में अफगानों की 6000-10000 सैनिकों की टुकड़ी द्वारा चौकी पर आक्रमण करने की खबर लगी, किले में तैनात सैनिक गुरमुख सिंह ने इसकी सूचना अपने आला अफसरों को दे दी। लेकिन उन्होनें इतनी जल्दी सहायता पहुंचाने में अपनी असमर्थता दिखा दी।

तब किले में मौजूद उन 21 जाँबाज सिपाहियों ने हवलदार ईश्वर सिंह की अगुआई में अपना मोर्चा सम्हाल लिया और अफगान साईंकोन की 6000-10000 की टुकड़ी का सामना करने लगे।

जब हुआ आमने सामने का मुक़ाबला:

एक के बदले तीस :

सिक्ख सैनिक अपनी तलवारों से और तीरों से अफगानों का सामना कर रहे थे। लेकिन तभी किले की एक तरफ़ की दीवार के टूट जाने से अफगान सैनिक किले में घुस आए और अंदर से उन्होनें सभी सैनिकों पर हमला बोल दिया ।

अब तक सिक्ख रेजीमेंट के सिपाही भी एक-एक करके वीरगति को प्राप्त हो रहे थे। सबसे अंत में सिग्नल मैन गुरमुख सिंह लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। सरगढ़ी को जीतने के बाद जब तक अफगान दूसरे किले की ओर रुख करते तब तक अँग्रेजी सेना ने उन्हें हमला करके हरा दिया और अपनी सरागढ़ी चौकी को पुनः हासिल कर लिया था।

13 सितंबर को अँग्रेजी सेना ने पहुँचकर जब किला अपने कब्जे में लिया तब उन्हें 21 सिक्ख सैनिकों के साथ 600 अफगान सैनिकों के शव भी मिले।

सारागढ़ी की याद:

ब्रिटिश साम्राज्य का अनोखा पुरस्कार:

सारागढ़ी के वीरों की याद में उस समय की ब्रिटिश संसद जिसे ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ कहा जाता था, ने भी गर्व महसूस करते हुए कुछ समय के लिए मौन रखा था। इसके साथ ही ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से बहादुरी का सबसे बड़ा पुरस्कार, ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ भी दिया गया था। तब का यह पुरस्कार आज के भारतीय परमवीर पुरस्कार के बराबर है। इतिहास में ब्रिटिश सरकार द्वारा किसी विदेशी सैनिकों को दिये जाने वाला यह अब तक एक मात्र पुरस्कार है।

इसके साथ ही 12 सितंबर को ‘सारागढ़ी दिवस’ के रूप में ब्रिटेन और इंगलेंड में यह आज भी मनाया जाता है।

भारत का प्रयास:

यूनेस्को ने इसे महान युद्ध माना

युनेस्को के शैक्षिक वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन ने इस युद्ध को इतिहास में लड़ी गई आठ महान लड़ाइयों में से एक माना है। संगठन द्वारा इस युद्ध के बारे में विस्तार से एक प्रकाशन के मधायम से बताया गया है।

बॉलीवुड की श्रद्धांजली:

सारागढ़ी के युद्ध पर अपनी श्रद्धांजली देते हुए ‘केसरी’ फिल्म का निर्माण किया गया। इस फिल्म में  अक्षय कुमार ने हवलदार ईश्वर सिंह का किरदार निभाया है। ईश्वर सिंह हवलदार उस टुकड़ी के प्रमुख नेता थे जिसने सारागढ़ी किले की रक्षा में अपने प्राणों को निछावर कर दिया था।

यह सही है कि भारत की भूमि के चप्पे-चप्पे पर अनेक ऐसे वीर हुए हैं जिनकी शौर्य गाथा अंजाने पन्नों पर लिखी गई है और उसे कोई नहीं पढ़ सकता है। लेकिन इतिहास की धूल हटा कर कभी न कभी इन वीरों की गाथाएँ सामने आ ही जाती हैं।